घर की अभिलाषा

“क्या उन्होंने कभी अपने खुद के या किराये के घर में रहने के बारे में सोचा इस सवाल के जवाब में 42% ने कहा कि उन्होंने खुद के घर में रहने के बारे में सोचा हैं। लेकिन ऐसा ना कर पाने की वजह या तो वहन करने योग्य ना होना या बचत ना होना बताया गया इससे इस बात की पुष्टि होती है कि बहुत सारे बेघरों को सड़कों पर रहने को मजबूर करने वाली मुख्य वजह वर्तमान आवासों को उनके लिये वहन करने में सक्षम ना होना है। जिन्होंने ये जवाब दिया कि उन्हें खुद के घर में रहने की चाह नहीं है उनमें ज्यादातर ने इसके लिये कोई कारण नहीं बताया। कुछ ने कहा कि “कोई उन्हें रहने की जगह नहीं देगा”। कुछ ने यह भी कहा कि “उन्हें अब ऐसी जिन्दगी की आदत हो चुकी हैं”। जिन्होंने घर की चाह नहीं दिखाई उनके जवाबों से ऐसा प्रतीत होता है कि वे खुद को असमर्थ और आत्मविश्वास की कमी के कारण दुर्भाग्य को स्वीकार लेते हैं और सड़कों पर लम्बे समय से रहन-सहन मेलजोल की वजह से खुद को हीन समझने के कारण घर की चाह रखना भी बंद कर देते हैं। उनके अंदर आत्म विश्वास पैदा करने और समर्थ बनाने के लिये प्रक्रियाओं की जरुरत पड़ेगी और बिना घर के दुष्चक्र को तोड़ना पड़ेगा।

बेघरों में सेवाओं की चाह और वहन करने की योग्यता
FGD के दौरान “अगर उन्हें बसेरों के लिये किराया चुकाने को कहा जाय तो वो प्रतिदिन या प्रति महीना कितना किराया तक देने के इच्छुक है?” इस सवाल को सिर्फ 31 उत्तरदाताओं ने कुछ महत्व दिया। अधिकतर ने कहा कि वें आज उपलब्ध आवास का खर्च वहन नहीं कर सकते। जब उन्हें कल्पना के तौर पर उनके वहन करने योग्य बसेरों और आवास के बारे में पूछा गया तो इन 31 लोगों ने कुछ महत्वपूर्ण जवाब दिये। उन्होंने कहा कि वें 500 में 1500 रुपये महीने तक के किराये का प्रबंध कर सकते हैं। इसमें निम्न सीमा बसेरों के प्रयोग के लिये और उच्च सीमा घर के किराये के लिये थी। बेघर परिवारों द्वारा ये भी साफ तौर पर बताया गया कि कोई रात्रि बसेरा बनाया जाता है तो उसमें साथ रहने के साथ-साथ खाना पकाने देने की सुविधा भी होनी चाहिये।

भोजन सुरक्षा
भोजन असुरक्षा होती है “जब भविष्य में भोजन की उपलब्धता और पहुँच के बारे में अनिश्चिता हो, स्वस्थ जीवन के लिये भोजन की मात्रा और प्रकार में अपर्याप्तता हो या भोजन प्राप्त करने के लिये समाज में अमान्य तरीके अपनाने की
आवश्यकता हो’ संसाधन और शारीरिक असमर्थता के कारण भी भोजन की असुरक्षा होती है। बेघरों के लिये भोजन की सुरक्षा इन चीजों पर निर्भर करती है।
a) अनाज और पके हुये भोजन की उपलब्धता और वहन क्षमता
b) भोजन की मात्रा
c) आय का स्तर और निरंतरता। इन तीनों चीजों के संयोग से भोजन सुरक्षा परिभाषित होती है।

भोजन लेने के सवाल पर कुल सैम्पल में 85% ने बताया कि वें दिन में तीन बार भोजन करते हैं। 13% ने बताया कि वें चार बार भोजन लेते हैं। तीन बार भोजन में ज्यादातर ने दाल-चावल और रोटी-दाल खाने की बात मानी यद्यपि रोटी, चावल और सब बेघरों के भोजन का हिस्सा । 87% बेघर परिवारों ने दिन में तीन बार भोजन करने की बात बतायी जबकि 82% व्यक्तिगत बेघरों ने तीन बार भोजन करने की बात कहीं। बेघर लोग सुबह के नाश्ते और शाम की चाय को भी भोजन में शामिल करते हैं। सुबह का नाश्ता अधिकतर सिर्फ चाय होती है, कभी कभार चाय के साथ अल्पाहार के तौर पर वड़ा-पाव या Parle-G (जोकि सबसे सस्ता 5 रुपये में उपलब्ध है) भी ले लेते हैं। प्रथम दृष्टि में लगता है कि बेघरों को पर्याप्त भोजन सुरक्षा है। लेकिन उनके खाने की गुणवत्ता, निरंतरता और स्त्रोत को समझने के लिये हमें और थोड़ा गहराई में जाना पड़ेगा। बेघरों के भोजन की परिस्थिति की साफ तस्वीर देखने के लिये हमें लोकेशन के हिसाब से खाने तक पहुँच और खाने की आदतों को भी देखना पड़ेगा। FGD के दौरान ये खुलासा हुआ कि बेघरों की नियमित भोजन लेने की क्षमता उनकी प्रतिदिन की आय पर निर्भर होती है जो कभी प्याप्त नहीं होती। इसलिये ऊपर बतायी गयी प्रतिदिन भोजन की संख्या उन दिनों की है जब उनके पास काम होता है और पैसा हाथ में आता है। जैसा कि आगे जीविका के सैक्शन में मालूम देगा कि 75% बेघर दिहाडी के काम करते हैं। अधिकतर बेघर दिहाडी के तौर पर 100 रुपये प्रतिदिन कमाते हैं। इतने पैसे उन्हें साफ-सफाई, पीने का पानी, खाना पकाने के लिये इंधन, काम तक आने जाने का खर्च और खाना सब तरह का खर्च संभालना पड़ता है। कुल बेघरों में 67%, 50 से 100 रुपये खाने पर खर्च करते हैं। 66% बेघर परिवार और 75% व्यक्तिगत बेघर ही इस सीमा के अंदर खाने पर खर्च कर पाते हैं। कुल सैम्पल का 20% बेघर 100 से 150 रुपये प्रतिदिन खाने पर खर्च कर पाते हैं। बेघर परिवारों में 21% और व्यक्तिगत बेघरों में 15% ही 100 से 150 रुपये खाने पर खर्च कर पाते हैं। शहर में एक राईस प्लेट (चावल, दाल, रोटी और सब्जी सहित) 35 से 50 रुपये से कम में नहीं मिलती है। पाँच लोगों के परिवार में जहाँ एक सदस्य कमाता हो. इतनी कम आय में भयानक रुप से भोजन की असुरक्षा होगी। अगर परिवार में खाना पकता है तो सबसे सस्ता चावल 18 रुपये किलो मिलता है इसके साथ में दाल और इंधन की कीमत अलग। इससे भी सिर्फ पेट भरने का काम चलेगा ना कि अच्छी गुणवत्ता वाला भोजन। FGDS में यह बताया गया कि उनके वहन करने योग्य उनके द्वारा प्रयोग किये जाने वाला चावल सबसे सस्ता और घटिया होता है और दाल एक ज्यादा पानी वाला मिश्रण होता है। के मार्फत अनुदान प्राप्त राशन की उपलब्धता और पहुँच में सुधार करने से बेघरों के लिये भोजन की सुरक्षा को मजबूती मिलेगी।

आर्थिक परेशानियों के दौरान भोजन तक पहुँच
बेघरों के पास पैसे ना होने पर कुल सैम्पल का 52% अपने दोस्तों से खाने के लिये उधर लेते हैं। 24% धार्मिक स्थलों (मंदिरों, मस्जिदों और चर्चा) को प्राथमिकता देते हैं और 15% दोस्तों को खाना खिलाने के लिये कह देते हैं और 6% भीख मांग लेते हैं। मोटे तौर पर बेघर परिवारों, पुरुषों और महिलाओं पर भी यही अनुपात लागू होता है।
व्यक्तिगत अधरों में आर्थिक संकट के दौरान दोस्तों से उधार लेने का वही (51%) अनुपात है लेकिन उनका धार्मिक स्थानों को भोजन के लिये प्रयोग करने का आंकडा कुल सैम्पल (24%) से ज्यादा (40%) है। इसकी वजह ये हो सकती है कि बेघर परिवारों की तरह व्यक्तिगत बेघरों के पास सहायता का कोई ढांचा नहीं होता है। चर्चा के दौरान यह बात सामने आयी थी कि कोई आय ना होने के समय में व्यक्तिगत बेघरों को अगर कोई उधार नहीं देता है तो वें भीख मांगने की बजाये अक्सर भूखे रह जाते हैं। उनका भोजन लिये धार्मिक स्थानों का अधिक प्रयोग करने का यह भी एक कारण हो सकता है। केवल 21% बेघर परिवार आर्थिक परेशानी में धार्मिक स्थानों का प्रयोग करते हैं जबकि काम की उपलब्धता में 20% उपयोग करते हैं। बेघर परिवार एक दूसरे को भोजन और अनाज़ का उधार का लेन-देन करते हैं। इसलिये उन्हें व्यक्तिगत बेघरों के मुकाबले धार्मिक स्थानों का प्रयोग करने को कम मजबूर होना पड़ता है। बेघरों के लिये भोजन सुरक्षा अत्यावश्यक रुप से मुसीबत के समय मदद करने वाले दोस्तों और धार्मिक स्थानों पर भोजन की उपलब्धता पर निर्भर करती है FGDS में बताया गया कि बेघर परिवार भी त्योहारों और विशेष अवसरों पर धार्मिक स्थानों पर भोजन करते हैं क्योंकि उन दिनों का भोजन सामान्य दिनों की अपेक्षा अच्छा बनाया जाता हैं। इस प्रकार विशेष अवसरों पर बेघरों के लिये धार्मिक स्थान भी अच्छी गुणवत्ता के भोजन का भूत बनते हैं। इस प्रकार आर्थिक संकट के समय बेघरों के लिये भोजन की अत्याधिक असुरक्षा के साफ संकेत मिलते हैं। इस तरह का वक्त उस दौरान जाता है जब ऑफ सीजन में काम उपलब्ध नहीं होता है। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि सब बेघर भोजन की अत्याधिक असुरक्षा का सामना करते हैं क्योंकि उनके पास रोजाना काम नहीं होता है और आपात स्थितियों का सामना करने के लिये बचत भी नहीं होती है। FGDs के दौरान बेघरों ने बताया कि जब भी कार्य उपलब्ध होता है तो वह नियमित नहीं होता जिसके कारण अक्सर आर्थिक परेशानियाँ आती रहती हैं। कम आय के समय लिये जाने वाला भोजन भी अच्छी गुणवत्ता का नहीं होता है। इन सब संकेतों के चलते भोजन की असुरक्षा के अलग-अलग स्तरों की अलग से सधन जांच (स्टडी) की जरुरत है।