स्वास्थ्य, स्वच्छता और साफ सफाई

अक्सर यह देखा गया है कि सामान्य आबादी के मुकाबले बेघर लोग स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से अनुपातहीन रुप से प्रभावित होते हैं। इस समस्या का हल निकाला जाना चाहिये लेकिन हमें घरविहीनता को विकृति और मनोरोगों से जोड़ने से बचना चाहिये। ना ही हमें बेघरों के अनुभवों को प्रतीक रुप में प्रयोग करना चाहिये। घरविहीनता और स्वास्थ्य के बीच बहुमुखी संबंध है। स्वास्थ्य, स्वच्छता और साफ-सफाई के मुद्दे को अलग-अलग स्थानों के हिसाब से अलग अलग रुपों में देखा जाना चाहिये क्योंकि ये सब उन क्षेत्रों में उपलब्ध सुविधाओं पर ज्यादा निर्भर करते हैं। इसमें महिला और पुरुष का भी असर आता है लेकिन व्यक्तिगत देघर और बेघर परिवारों की स्थिति में बहुत कम अंतर है। a) स्वता और साफ सफाई तक पहुँच सार्वजनिक शौचालय जहाँ भी सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध है बेघर लोग उनका उपयोग करते हैं जबकि बोरीवली, कांदिवली, साई बाबा मंदिर और साईधाम में रहने वाले बेघर सड़कों और खुले नालों का शौच के लिये उपयोग करते है क्योंकि वहाँ आस पास कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं है। यह चौंकाने वाली बात है कि बोरीवली फ्लाईओवर का संजय गांधी नेशनल पार्क के करीब होते हुये और लम्बी दूरी की प्राईवेट बसों का बड़ा बस स्टैंड होते हुये भी वहाँ कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं हैं। बांद्रा टर्मिनस के पास के लोग रेलवे टर्मिनस का शौचालय प्रयोग करते हैं। नहाने के मामले में भी ऐसा ही रुझान देखने को मिलता है जहाँ भी सार्वजनिक शौचालय अस्तित्व में है उन्हें स्नान के लिये भी प्रयोग किया जाता है। या फिर जहाँ बेघर रहते हैं वहाँ सड़कों पर पानी लाकर नहाया जाता है। काफी जगहों पर पानी नजदीक हाऊसिंग सोसाईटियों से वाचमैन को घूस देकर लाया जाता है।

Table 54

पेमेन्ट

पेशाब करने के लिये अधिकतर लोगों द्वारा दिया जाने वाला औसत पेमेन्ट 2 रुपये प्रति आदमी है। ज्यादातर महिलाओं को पेशाब के लिये पैसे देने पड़ते हैं जबकि यह पुरुषों के लिये मुफ्त है। (शौच के लिये प्रति आदमी 3 रुपये है और नहाने के लिये एक बाल्टी पानी के लिये 10 रुपये का पेमेन्ट देना पड़ता है।)

Table 55

स्वच्छता और साफ सफाई का व्यवहार सार्वजनिक शौचालयों की कमी और नहाने के पानी की ऊँची कीमतः बेघरों को रोज ना नहाने और जरुरत के हिसाब से ही कपड़े धोने के लिये मजबूर करते हैं। जहाँ कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं है वहाँ महिलाएं एकान्त की कमी के कारण नितांत आवश्यक होने पर ही स्नान कर पाती हैं। कपड़े धोने के लिये या तो सार्वजनिक नलों से या घूस देकर हाउसिंग सोसाईटीज के वाचमैनों से पानी जुटाया जाता है।

(एक 100 रुपये प्रतिदिन कमाने वाली बेघर महिला के लिये खुद की साफ सफाई 20-25 रुपये तक पड़ती है। जोकि उसकी कमाई का एक चौथाई है। इसलिये इस खर्च को कम करने के लिये विकल्पों का प्रयोग वेहतर है अगर एक महिला दिन में तीन बार पेशाब और दो बार शौच के लिये शौचालय का उपयोग करती है तो 12 रुपये खर्च हो जाते हैं इसमें स्नान के 10 रुपये जोड़ने पर कुल 22 रुपये प्रतिदिन हो जाते हैं। यह स्वच्छता और साफ-सफाई के लिये बहुत अधिक कीमत है। पुरुषों के लिये पेशाब मुफ्त होने की वजह से कीमत में थोड़ा सा अन्तर है।)

कुंभारवाडा में. जहाँ औरतें पुराने कपड़ों के बदले बर्तन बेचती हैं औरतें गंदे कपड़े को फेंक कर वें पुराने कपड़े पहन लेती है जो उन्होंने बर्तनों के बदले में लिये हैं क्योंकि उन्हें कपड़े धोने के मुकाबले यह सस्ता पड़ता है। कपड़ों के बारे में पूछने पर वकोला ब्रिज पर रहने वाले परिवार के एक सदस्य ने दिलचस्प किस्सा बताया कि वो अपने कपड़े चुन-चुन कम्पनी (कचरा बीनने से मिले कपड़े) से लाता है। व्यक्तिगत बेघर अपने गंदे कपड़े धुलने के लिये लॉन्ड्री में दे देते हैं और इनसे दूसरे कपड़े ले लेते हैं । इससे जाहिर होता है कि बेघर लोग अपने सामने उपलब्ध विकल्पों में से सबसे बेहतर विकल्प चुनते हैं। नेवाओं की उपलब्धता और वहन क्षमता में कमी के कारण ही उन्हें रोजाना स्नान और कपड़े धोने से वंचित रहना पड़ता है।

पीने के पानी तक पहुँच
सब लोकेशनों पर कम से कम एक पीने के पानी का स्त्रोत है। कुल सैम्पल में 53% के लिये सार्वजनिक नल पीने के पानी का मुख्य स्रोत है। लेकिन यह भी लोकेशन पर ज्यादा निर्भर है । बेघरों में 18% पीने का पानी खरीदते हैं। पीने का पानी खरीदने के मामले में महिलाओं और बेघर परिवारों का प्रतिशत (22%) ज्यादा है और पुरुषों और व्यक्तिगत बेघरों के मामले में यह काफी कम क्रमशः 8% और 3% है। ज्यादातर जो व्यक्गित बेघर होटलों में खाते है वहीं पानी भी पी लेते है इसलिये खरीदने की जरुरत कम पड़ती है। (मुम्बई में हाऊसिंग सोसाईटी में रहने वाले पाँच सदस्यों वाले परिवार का एक दिन का 1000 लीटर का बिल 3.50 रुपये आता है। बेघरों का 1000 लीटर के लिये 1000 रुपये चुकाने पड़ते हैं जो कि दूसरे आम नागरिकों के मुकाबले 300 गुना है।) कांदिवली में पीने के पानी के लिये कोई सार्वजनिक नल नहीं है। उनका पीने के पानी का स्रोत एक नाले के अंदर टूटी हुयी पाईप लाईन है। वें इसे साफ और पीने योग्य समझकर पीते हैं। बोरीवली और ताड़देव में लोग नजदीक की हाऊसिंग सोसाईटियों के वॉचमैनों से पानी खरीदते हैं। वकोला ब्रिज पर लोग पुलिस स्टेशन और नजदीकी चालों से पानी लेते हैं। पानी का पेमेन्ट बाल्टियों, बर्तनों और कान के आधार पर होता है मुम्बई में हाऊसिंग सोसाइटी में रहने वाले पाँच सदस्यों के परिवार का एक दिन का 1000 लीटर का पानी का बिल 3.50 रुपये आता है। बेघरों को 1000 लीटर पानी के लिये 1000 रुपये चुकाने पड़ते है क्योंकि सार्वजनिक शौचालयों में 10 लीटर की एक पानी की बाल्टी की कीमत 10 रुपये हैं। इस प्रकार बेघरों को आम लोगों के मुकाबले पानी के लिये 300 गुना दाम चुकाने पड़ते हैं। FGD में यह मालूम पड़ा कि पीने योग्य पानी की कमी के चलते उनमें पानी से होने वाली बीमारियों पीलिया (जॉन्डिस) और दस्त (डायरिया) की भरमार है। कांदिवली और बोरीवली उपनगर क्षेत्रों में जन-सुविधायें और सार्वजनिक नल लगाना बहुत जरुरी है क्योंकि वहाँ एक भी नहीं है। खाद्य सामग्री के बाद इन मूलभूत सुविधाओं की कीमत में कमी से उनकी भोजन की सुरक्षा भी बढेगी और उनकी बचत भी।

हॉस्पिटल तक पहुँच
बीमार पड़ने पर 61% (300 में से 184) बेघर सरकारी हॉस्पिटल में जाना पसंद करते हैं, 25% लोकल कैमिस्ट से दवायें ले लेते हैं, 27% लोकल डॉक्टर के पास जाते हैं। सरकारी हॉस्पिटल जाने वाले 184 में से 134 बीमारी के समय सीधे हॉस्पिटल जाते हैं और केवल उनका उपयोग करते हैं। बाकी 50 सरकारी हॉस्पिटल जाने से पहले या तो दुकानों से दवाई लेते हैं या लोकल डॉक्टर से इलाज कराते हैं। आगे का ग्राफ देखें – व्यक्तिगत बेघरों के लिये भी हॉस्पिटल के उपयोग का ऐसा ही चलन दिखाई देता है। वास्तव में वें सरकारी हॉस्पिटल का उपयोग पुरुष 60%, महिलायें 62% और 61% बेघर परिवारों के मुकाबले में अधिक अनुपात (66%) में करते हैं। यह उस अवधारणा के विपरीत है कि बेघर लोग इलाज के लिये प्राईवेट डॉक्टर के पास अधिक जाते हैं। दूसरे वर्गों के मुकाबले व्यक्तिगत बेघर दुकान पर मिलने वाली दवाईयों का अधिक उपयोग करते हैं। जहाँ 33% व्यक्तिगत बेघर दुकानों से दवाई खरीदते हैं वहाँ केवल 23% बेघर परिवार ही खुद दवाई खरीदते हैं जिससे उनका अधिक संख्या में हॉस्पिटल जाने का कारण समझ में आता है। लोकल डॉक्टर से इलाज में संख्या की कमी से भी यही नतीजा निकलता है। 28% बेघर परिवारों के मुकाबले सिर्फ 20% व्यक्तिगत बेघर ही लोकल डॉक्टर से इलाज कराते हैं। अच्छे डॉक्टर से इलाज ना करवा पाने के अंतर की वजह से ही उनकी सरकारी हॉस्पिटल में जाने वालों की संख्या बढ जाती है। (67% व्यक्तिगत बेघर और 61% बेघर परिवार) यह अंतर लोकल डॉक्टर के पास जाने वालों के जितना ही है।

हॉस्पिटल की सेवाओं की रेटिंग पूछने पर 65% उत्तरताओं ने इन्हें अच्छा बताया, 16% ने खराब और 19% ने औसत दर्जे का बताया। FGDS और इंटरव्यू के दौरान दिये उत्तरों में बताया गया कि हॉस्पिटलों में दवाईयाँ उपलब्ध नहीं होती थी। बाहर से खरीदने के कारण ये उन्हें महंगा पड़ जाता है। टेस्टों की सस्ती दरों के बावजूद भी ये उनके वहन योग्य नहीं हैं। कुछ टेस्ट उन्हें बाहर से भी कराने पड़ते हैं। बेघर परिवारों के उत्तरदाताओं ने बताया कि सरकारी हॉस्पिटलों के ओ पी डी (Out Patient Department) में इलाज कराने में कोई कठिनाई नहीं होती है। जबकि व्यक्तिगत बेघरों के अनुसार उनके खराब पहनावे दिखावे के कारण हॉस्पिटल के स्टाफ का व्यवहार अच्छा नहीं होता इसलिये वे हॉस्पिटल जाने से कतराते हैं। भारत में यह एक सामान्य प्रथा है कि हॉस्पिटल में भर्ती होने के लिये (चाहे बेघर हों या अन्य) किसी ना किसी का सेवक के तौर पर साथ होना जरुरी है। बेघरों के मामले में विशेषकर व्यक्तिगत बेघरों के लिये यह बहुत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उनका कोई नहीं होता, इसलिये हॉस्पिटल उन्हें भर्ती करने से मना कर देता हैं। यह सीधा-सीधा उनके जीवन के अधिकार का हनन होता है। व्यक्तिगत बेघरों में यह पाया गया कि अक्सर जब वें अत्याधिक बीमार होते हैं तभी डॉक्टर के पास जाते हैं। तब तक हालत गम्भीर और जटिल हो चुकी होती है। व्यक्तिगत बेघरों के संबंध में एक बड़ी परेशानी यह भी है कि जब वें बीमारी की वजह से चलने फिरने लायक नहीं रहते तो उन्हें डॉक्टर या हॉस्पिटल तक पहुँचाने वाला कोई नहीं होता है। इसलिये जहाँ व्यक्तिगत बेघर ज्यादा संख्या में है वहाँ आपात मेडिकल सहायता की सुविधा उपलब्ध होना अनिवार्य है। (भारत में यह एक सामान्य प्रथा है कि हॉस्पिटल में भर्ती होने के लिये (चाहे बेघर हो या अन्य) किसी ना किसी का सेवक के तौर पर साथ होना जरुरी है। बेघरों के मामले में विशेषकर व्यक्तिगत बेघरों के लिये यह बहुत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उनका कोई नहीं होता जो उनके साथ हॉस्पिटल में रह सके, इसलिये हॉस्पिटल उन्हें भर्ती करने से मना कर देते हैं।) 

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